सुनहरी यादें
आज
फिर खिड़कियों
के झरोखों
से
चहचहाट
सी सुनाई दी मेरे कानों
में
शायद
सच है कोई है
सपना
कहीं
बर्तनों की खनक
गुनगुना
गई मेरे कानों
में
कानों
का धोखा था
या
किसी के आने का इंतजार
कभी
झुरमुठ सी
पेड़ पौधे यहाँ हुआ करते थे
उनकी
डालों पर खग -
विगह कलरव
करते थे
कट
गए सारे के सारे झुरमुठ
रह
गए बनते
भवनों की खटपट
अब
तो यहाँ सन्नाटा है
बस
ईंट पत्थरों का बसेरा है
जान
कहाँ बेजान है यह
बस
बसते शहरों की शान है यह
जान
तो उन झुरमुठों
में समाया करते
थे
जब
वहाँ खग -
विगह चहचहाया
करते थे
आज
भी उनकी याद आती है
फ़िजा
में सरगम सी
लहराती है
मन
का उपवन हरा भरा हो जाता है
वातावरण
भी यहाँ का मनोरम हो जाता है
सुबह
की धूप उनकी सरगम
सुन उगा करती थी
शाम
उनकी सरगम सुन डूबा करती थी
अब
तो बस सन्नाटा पसरा है
कब
सुबह हुई कब शाम कहाँ पता चलता
है
आज
फिर से खिड़कियों
के झरोखों से
चहचहाहट
सी सुनाई दी मेरे कानों में।
सरिता प्रसाद
20-01-2017
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